पंचतंत्र की कहानियाँ | Panchatantra Story of Priest
एक बार की बात है, एक छोटे-से गाँव में संभुदयाल नामक एक ब्राह्मण रहता था। वह अपनी सादगी, पूजा-पाठ और ईमानदारी के लिए पूरे गाँव में प्रसिद्ध था। वह रोज़ाना यजमानों के घर जाकर यज्ञ करता, मंत्र पढ़ता और जो कुछ भी दक्षिणा मिलती, उसी से अपना गुज़ारा करता था।
एक दिन उसके यजमान ने प्रसन्न होकर उसे दक्षिणा में एक मोटा-ताज़ा बकरा दिया। ब्राह्मण खुश हुआ, क्योंकि उस बकरे से उसके परिवार के कई दिनों का गुज़ारा हो सकता था।
उसने बकरे को कंधे पर रखा और खुशी-खुशी अपने घर की ओर चल पड़ा। रास्ता लंबा था — पेड़ों की छाया, दूर-दूर तक खेत, और बीच-बीच में सुनसान रास्ते। लेकिन ब्राह्मण मन ही मन भगवान का धन्यवाद करता जा रहा था।
उसी रास्ते के किनारे तीन ठग बैठे थे। वे हमेशा किसी न किसी भोले व्यक्ति को देखकर उसकी चीज़ें हड़पने की फिराक में रहते थे।
तीनों ने ब्राह्मण को देखा, उसके कंधे पर बकरा था। उनमें से एक बोला,
“भाइयों! आज तो भगवान ने खुद भेजा है। देखो, वो ब्राह्मण अकेला है और उसके पास बढ़िया बकरा है।”
दूसरा बोला, “लेकिन वो तो बहुत धार्मिक आदमी लगता है, उससे सीधे छीना नहीं जा सकता।”
तीसरा ठग चालाकी से बोला, “तो क्या हुआ? हम दिमाग़ से खेलेंगे, बल से नहीं।”
तीनों ने मिलकर योजना बनाई —
“हम उसे इस तरह भ्रम में डालेंगे कि वह खुद बकरा फेंक देगा!”
Panchatantra Story of Priest
ब्राह्मण अब रास्ते के बीचोंबीच आ चुका था कि तभी पहला ठग झाड़ियों के पीछे से निकला।
वह बहुत विनम्रता से बोला,
“अरे पंडित जी! नमस्ते! लेकिन ये आप क्या उठा रखे हैं? आप जैसे पवित्र व्यक्ति के कंधे पर कुत्ता कैसे बैठा है? ये तो पाप है!”
ब्राह्मण चौंक गया।
“कुत्ता? क्या कह रहे हो? ये तो बकरा है।”
ठग ने सिर झुकाया, “अरे नहीं पंडित जी, मैं तो बस आपको पाप से बचाने के लिए कह रहा था। अगर आप मानें तो ठीक, वरना मैं चलता हूँ।”
इतना कहकर वो मुस्कराता हुआ चला गया।
ब्राह्मण थोड़ा झल्लाया, “अजीब आदमी था। बकरे को कुत्ता कह रहा था।”
वह आगे बढ़ा।
कुछ दूरी पर दूसरा ठग आ गया। उसने भी हाथ जोड़कर कहा,
“पंडित जी, आप तो संस्कारों के प्रतीक हैं। ये क्या अनर्थ है? कंधे पर कुत्ता उठाकर घूमना तो नीच लोगों का काम होता है!”
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ब्राह्मण को अब झुंझलाहट हुई।
“क्या तुम भी पागल हो? ये कुत्ता नहीं, बकरा है। साफ दिख रहा है!”
दूसरा ठग भी शांत स्वर में बोला,
“पंडित जी, मैंने तो बस अपनी आँखों से जो देखा, वही कहा। अब आप जानिए।”
और वह भी चला गया।
अब ब्राह्मण सोच में पड़ गया।
“दोनों आदमी एक ही बात कह रहे हैं… क्या मेरी आँखें धोखा दे रही हैं? नहीं… ये कैसे हो सकता है?”
इतने में तीसरा ठग आया। उसने गंभीरता से कहा,
“पंडित जी, आप जैसे विद्वान व्यक्ति से उम्मीद नहीं थी कि आप कुत्ता लेकर चलेंगे। गाँव के लोग तो हँसेंगे कि ब्राह्मण ने अपना धर्म त्याग दिया!”
अब ब्राह्मण का विश्वास पूरी तरह डगमगा गया।
“इतने लोग एक साथ झूठ तो नहीं बोल सकते…” उसने सोचा।
वह जल्दी से बकरे को नीचे उतारकर बोला,
“हे भगवान! मुझे माफ़ करना! मैं इतना अंधा कैसे हो गया कि कुत्ते को बकरा समझ बैठा!”
और वह बकरे को छोड़कर वहाँ से तेज़ कदमों से निकल गया।
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तीनों ठग, जो झाड़ियों में छिपे थे, ठहाके लगाते हुए बाहर निकले।
पहले ठग ने कहा, “देखा! दिमाग़ से काम लो तो बकरी बिना मेहनत के मिलती है।”
दूसरे ने कहा, “अब इसे मज़े से पकाओ।”
तीसरा बोला, “हाँ, आज दावत हमारी होगी और मूर्ख ब्राह्मण भूखा रहेगा!”
उन्होंने बकरे को उठाया, गाँव के बाहर जाकर काटा और रातभर जमकर दावत उड़ाई।
उधर बेचारा ब्राह्मण घर पहुँचा तो उसकी पत्नी ने पूछा,
“क्या हुआ जी? बकरा कहाँ है?”
ब्राह्मण बोला, “कौन बकरा? वो तो कुत्ता था! मैं उसे छोड़ आया।”
पत्नी सिर पकड़कर रह गई।
“कुत्ता नहीं था, तुम्हें ठगों ने धोखा दिया है!”
अब ब्राह्मण को अपनी मूर्खता का एहसास हुआ। उसने सिर पकड़ लिया और बोला,
“अरे! काश मैंने अपनी आँखों पर भरोसा किया होता, दूसरों की बातों पर नहीं!”
शिक्षा:
दूसरों की बातों में आकर अपनी समझ और विश्वास को कभी नहीं खोना चाहिए। जो अपनी आँखों से देखे और दिमाग़ से सोचे बिना निर्णय लेता है, वह आसानी से ठगा जा सकता है।




