तेनालीराम की कहानियाँ | Tenali Rama Moral Stories
विजयनगर का दरबार इन दिनों अशांत था। पड़ोसी राज्य से सीमा विवाद चल रहा था, और तनाव इतना बढ़ चुका था कि राजा कृष्णदेव राय के माथे की लकीरें गहरी होती जा रही थीं। कई बार सुलह की कोशिशें की गईं, लेकिन हर बार बात बिगड़ जाती। इसी बीच दरबार में कुछ लोग ऐसे थे जो तेनालीराम की चतुराई और लोकप्रियता से ईर्ष्या करते थे। वे हमेशा मौके की तलाश में रहते कि कब उन्हें बदनाम कर सकें।
एक दिन जब राजा महल के बगीचे में अकेले टहल रहे थे, हवा में चिंता की गंध घुली हुई थी। तभी एक दरबारी धीरे-धीरे उनके पास आया और सिर झुकाकर बोला, “महाराज, यदि आप अनुमति दें, तो मैं एक बहुत महत्वपूर्ण बात कह सकता हूँ… लेकिन पहले वचन दीजिए कि आप मेरे कहने पर मुझे दंड नहीं देंगे।”
राजा ने हैरानी से कहा, “तुम्हें डरने की क्या जरूरत है? जो भी कहना हो, साफ-साफ कहो।”
दरबारी ने धीरे से कहा, “महाराज, मेरे कानों में खबर पड़ी है कि तेनाली रामा पड़ोसी राजा से मिले हुए हैं। वे आपके विरुद्ध साजिश रच रहे हैं ताकि राज्य कमजोर पड़े और आप युद्ध हार जाएँ।”
राजा एकदम सन्न रह गए। “क्या?” उन्होंने गुस्से में कहा। “तेनालीराम? वह ऐसा कभी नहीं कर सकते!”
दरबारी बोला, “महाराज, आप उनका बहुत आदर करते हैं, पर मैं सच कह रहा हूँ। मैंने यह बात पक्के स्रोतों से सुनी है।”
अब राजा के मन में संशय के बीज बोए जा चुके थे। उन्होंने कुछ देर तक मौन रहकर कहा, “ठीक है, इस बात की जांच होगी। अगर तेनालीराम दोषी निकले, तो उन्हें सजा मिलेगी।”
Tenali Rama Moral Stories
अगले दिन दरबार में तेनालीराम को बुलाया गया। राजा का चेहरा सख्त था, और वातावरण भारी।
राजा ने कहा, “तेनालीराम, हमें यह सूचना मिली है कि तुमने हमारे शत्रु राजा से मिलकर हमारे राज्य को नुकसान पहुँचाने की योजना बनाई है।”
तेनालीराम ने चौंककर राजा की ओर देखा। उनकी आँखों में आंसू आ गए, लेकिन स्वर संयमित रहा, “महाराज, मैं आपके प्रति सदा निष्ठावान रहा हूँ। यह आरोप मेरे लिए अपमानजनक है। लेकिन अगर आपको मुझ पर विश्वास नहीं, तो मैं आपके आदेश का पालन करूंगा।”
राजा का दिल कठोर हो चुका था। उन्होंने कहा, “अगर तुमने सच में कुछ नहीं किया, तो साबित करो। अभी के लिए तुम विजयनगर छोड़ दो। जाओ और वहीं रहो—उसी राज्य में, जिससे तुमने कथित रूप से संधि की है।”
तेनालीराम ने बिना कुछ कहे सिर झुका लिया और दरबार से निकल गए। उनके दुश्मन मुस्कुरा उठे। उन्हें लगा, “अब तेनालीराम का अंत हो गया।”
तेनालीराम पड़ोसी राज्य की राजधानी पहुँचे। वहाँ उन्होंने बड़े विनम्र भाव से शत्रु राजा से मुलाकात की। वे बोले, “महाराज, मैं विजयनगर से आया हूँ। हमारे राजा आपके बारे में बहुत ऊँचा सोचते हैं। वे आपको शत्रु नहीं, मित्र मानते हैं।”
शत्रु राजा चकित हुआ, “लेकिन हमारे जासूस तो कह रहे हैं कि कृष्णदेव राय युद्ध की तैयारी कर रहे हैं।”
तेनालीराम बोले, “नहीं महाराज, ये भ्रम हैं। मेरा राजा शांति चाहता है, युद्ध नहीं। और मैं इसी भ्रांति को दूर करने आया हूँ।”
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शत्रु राजा ने कुछ देर सोचा और फिर बोला, “अगर ऐसा है, तो हमें सुलह करनी चाहिए। लेकिन कैसे?”
तेनालीराम मुस्कुराए, “बहुत सरल उपाय है। आप उपहार और एक सन्धि पत्र भेजिए। यदि कृष्णदेव राय उसे स्वीकार कर लें, तो मित्रता स्थापित हो जाएगी। यदि लौटाएँ, तो मैं स्वयं आपके सामने अपराधी बन जाऊँगा।”
शत्रु राजा ने तेनालीराम की बात मानी और अगले दिन उपहारों के साथ एक सन्धि पत्र भेजा। जब दूत विजयनगर पहुँचा और राजा को वह पत्र सौंपा, तो राजा के चेहरे पर आश्चर्य झलक उठा।
उन्होंने तुरंत कहा, “तेनालीराम को वापस बुलाओ!”
जब तेनालीराम दरबार में लौटे, राजा ने उनके चरणों में हाथ जोड़ दिए, “तेनालीराम, मुझे क्षमा करो। मैंने तुम्हारे प्रति विश्वास खो दिया था, जबकि तुमने मेरे राज्य को बचा लिया।”
राजा ने सन्धि पत्र स्वीकार किया, शत्रु राजा से मित्रता स्थापित की, और पूरे दरबार के सामने तेनालीराम को स्वर्ण मुद्राएँ और विशेष सम्मान दिया।
उन दरबारियों के चेहरे जो षड्यंत्र में शामिल थे, शर्म से झुक गए। उन्हें एहसास हुआ कि तेनालीराम के विरुद्ध चाल चलना अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है।
उस दिन से राजा और तेनालीराम के बीच विश्वास और भी गहरा हो गया।
तेनालीराम ने न केवल षड्यंत्र को विफल किया, बल्कि दो राज्यों के बीच शांति की नींव रखी।
शिक्षा:
सच्चाई और बुद्धिमत्ता की शक्ति सबसे बड़ी होती है। झूठ और षड्यंत्र चाहे कितने ही गहरे क्यों न हों, अंततः सत्य की जीत होती है।




